उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: || 17||
उत्तमः-परम; पुरुषः-दिव्य व्यक्तित्व; तु–लेकिन; अन्यः-अतिरिक्त; परम-आत्मा-परमात्मा; इति–इस प्रकार; उदाहृतः-कहा जाता है; यः-जो; लोक-त्रयम्-तीन लोकों में; आविश्य-प्रवेश करके; बिभर्ति-पालन करना; अव्ययः-अविनाशी; ईश्वरः-नियन्ता।
BG 15.17: इनके अतिरिक्त एक परम सर्वोच्च रास्ता है जो अक्षय परमात्मा है। वह तीनों लोकों में नियंता के रूप में प्रविष्ट होता है और सभी जीवों का पालन पोषण करता है।
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संसार और आत्मा का निरूपण करने के पश्चात् अब श्रीकृष्ण भगवान के संबंध में चर्चा करते हैं जो संसार तथा नश्वर और अविनाशी जीवों से परे हैं। शास्त्रों में उन्हें परमात्मा के नाम से पुकारा जाता है। 'परम' विशेषण स्पष्ट करता है कि परमात्मा आत्मा या जीवात्मा से भिन्न है। यह श्लोक उन अद्वैतवादी दार्शनिकों का खण्डन करता है, जो जीवात्मा को ही परम आत्मा मानते हैं। जीवात्मा अणु है और यह केवल अपनी देह में ही व्याप्त रहती है जबकि परमात्मा विभु हैं और सब प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। वे उनके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उचित अवसर पर उसका फल प्रदान करते हैं। वे जीवात्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक रहते हैं चाहे वह कोई भी शरीर धारण करे। अगर जीवात्मा कुत्ते की योनि में जन्म लेती है तब भी परमात्मा उसके साथ रहते हैं और पूर्व कर्मों के अनुसार उसे फल देते हैं।
संसार में कुत्तों के भाग्य में भी विषमता देखने को मिलती है। कुछ आवारा कुत्ते भारत की गलियों में नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं जबकि अन्य पालतू कुत्ते संयुक्त राज्य अमेरिका में विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। यह विषमता पूर्व संचित कर्मों के परिणामस्वरूप पायी जाती है। परमात्मा ही हमें हमारे कर्मों का प्रतिफल प्रदान करते हैं और प्रत्येक जन्म में आत्मा जिस भी योनि में जाती है वे उसके साथ रहते हैं। परमात्मा जो सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं वे अपने चतुर्भुजधारी क्षीरोदकशायी विष्णु के साकार रूप में भी प्रकट रहते हैं। हिन्दी में एक सुप्रसिद्ध कहावत है-"मारने वाले के दो हाथ, बचाने वाले के चार हाथ।" अर्थात् किसी को मारने वाले के दो हाथ होते हैं लेकिन उसकी रक्षा करने वाले के चार हाथ होते हैं। यह चतुर्भुज धारी स्वरूप परमात्मा के संदर्भ में कहा जाता है।